Gandhi ji ni atmakatha in hindi

गांधीजी की आत्मकथा Autobiography of Leader Gandhi in Hindi

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गांधीजी की आत्मकथा Gandhiji Ki Atmakatha in Hindi

गांधीजी की आत्मकथा 600 Words

मेरे पिता करमचंद गाँधी थे। वह राजकोट के दीवान थे। वह एक सत्य-प्रिय, साहसी और उदार व्यक्ति थे। वह सदा न्याय करते थे। मेरी माता का नाम पुतली बाई था। उनका स्वाभाव बहुत अच्छा था। वह धार्मिक विचारो की महिला थी। वह कभी भी पाठ-पूजा किए बिना भोजन नहीं करती थी। 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर मैमेरा जन्म हुआ। पोरबंदर से पिता जी जब राजकोट गए तब मेरी आयु 7 वर्ष की रही होगी।

मैं पहले पाठशाला में फिर ऊपर के स्कूल में और वहां से हाई स्कूल में गया। एक बार पिताजी श्रवण पितृ भक्ति नामक नाटक की एक किताब खरीद कर लाए थे। मैंने उसे बड़े शौक से पढ़ा। उन्हीं दिनों शीशे में तस्वीर दिखाने वाले लोग आया करते थे। उनसे मैंने अंधे माता पिता को बहंगी पर बैठा कर ले जाने वाला श्रवण कुमार का चित्र देखा। मैंने मन ही मन कहा मैं भी श्रवण कुमार बनूंगा। मैंने सत्यवादी हरिश्चंद्र नाटक भी देखा। बार-बार उसे देखने की इच्छा होती। हरिश्चंद्र के सपने आते। बार-बार मेरे मन में यह बात उठती कि सभी हरिश्चंद्र की तरह सत्यवती क्यों ना बने। यही बात मन में बैठ गई कि चाहे हरिश्चंद्र की भांति दुख उठाना पड़े पर सत्य को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

जब मैं केवल 13 वर्ष का था तभी मेरा विवाह कस्तूरबा के साथ हो गया था। मगर मेरी पढ़ाई चलती रही। पांचवी और छठी कक्षा में तो छात्र छात्रवृत्तिया भी मिली थी। अपने आचरण की ओर मैं बहुत ध्यान देता था। यदि कभी भूल हो जाती तो मेरी आंखों में आंसू भर आते। अपने से बड़ों तथा शिक्षकों का अप्रसन्न होना मुझे सहन नहीं हो पाता था। मुझे यह याद नहीं कि मैंने कभी किसी भी शिक्षक या स्कूल के बचो से कभी झूठ बोला हो। मैंने पुस्तकों में पढ़ा था कि खुली हवा में घूमना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। यह बात मुझे अच्छी लगी और तभी से मैंने सैर करने की आदत डाल ली। सैर करना भी एक प्रकार का व्यायाम ही है, इससे मेरा शरीर मजबूत हो गया।

मैं हाई स्कूल में मंदबुद्धि विद्यार्थी नहीं माना जाता था, पर जहां तक याद है मुझे कभी अपनी होशियारी का कोई गर्व न रहा। इनाम या छात्रवृत्ति पाने पर मुझे आश्चर्य होता था, लेकिन अपने आचरण कि मुझे बहुत चिंता रहती थी। मेरे हाथों कोई ऐसा काम ना हो जाए जिसके लिए शिक्षक को मुझे दंड देना पड़े। मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी। मुझे मार का दुख ना था पर मैं दंड का पात्र समझा गया इस बात का बहुत दुख था। यह बात पहली या दूसरी कक्षा की है। मोहनदास करमचंद गांधी।

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